दीं ही बेहोश है न दुनिया बेहोश
हर शक्ल से है सूरत-ए-उक़्बा बेहोश
किस जाए पे आया हूँ 'क़लक़' मय पीने
होश भी कहता है कि इतना बेहोश
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कहिए क्या और फ़ैसले की बात
हर ज़ख़्म-ए-जिगर खाया है दिल पर तन कर
हम तो याँ मरते हैं वाँ उस को ख़बर कुछ भी नहीं
जी है ये बिन लगे नहीं रहता
ज़िंदगी मर्ग की मोहलत ही सही
पड़ा है दैर-ओ-काबा में ये कैसा ग़ुल ख़ुदा जाने
किस लिए दावा-ए-ज़ुलेख़ाई
क्या जानिए उल्फ़त का है किस से आग़ाज़
दिल से मुझे आने की है आन की आहट
दिल के हर जुज़्व में जुदाई है
जब बाप मुआ तो फिर है बेटा क्या शय
मरमर के पए रंज-ओ-बला जीते हैं