जैसे वीराने से टकरा के पलटती है सदा
दिल के हर गोशे से आई तिरी आवाज़ मुझे
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निगाह-ए-आरज़ू-आमोज़ का चर्चा न हो जाए
सुनाता है क्या हैरत-अंगेज़ क़िस्से
है मुद्दआ-ए-इश्क़ ही दुनिया-ए-मुद्दआ
बसंती तराना
दिल को ख़ुदा की याद तले भी दबा चुका
इन तल्ख़ आँसुओं को न यूँ मुँह बना के पी
'हफ़ीज़' अपनी बोली मोहब्बत की बोली
आख़िरी रात
हाथ रख रख के वो सीने पे किसी का कहना
चले थे हम कि सैर-ए-गुलशन-ए-ईजाद करते हैं
तीर चिल्ले पे न आना कि ख़ता हो जाना
चराग़-ए-ख़ाना-ए-दर्वेश हों मैं