Ghazals of Hatim Ali Mehr
नाम | हातिम अली मेहर |
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अंग्रेज़ी नाम | Hatim Ali Mehr |
ज़ुल्फ़ अंधेर करने वाली है
ज़िक्र-ए-जानाँ कर जो तुझ से हो सके
वो ज़ार हूँ कि सर पे गुलिस्ताँ उठा लिया
वारिद कोह-ए-बयाबाँ जब में दीवाना हुआ
उस ज़ुल्फ़ के सौदे का ख़लल जाए तो अच्छा
उस का हाल-ए-कमर खुला हमदम
साथ में अग़्यार के मैं भी सफ़-ए-मक़्तल में हूँ
सर झुकाता नहीं कभी शीशा
साक़ी है न मय है न दफ़-ओ-चंग है होली
रंग-ए-सोहबत बदलते जाते हैं
क़त्अ हो कर काकुल-ए-शब-गीर आधी रह गई
पुतली की एवज़ हूँ बुत-ए-राना-ए-बनारस
पूछेगा जो वो रश्क-ए-क़मर हाल हमारा
पोशाक-ए-सियह में रुख़-ए-जानाँ नज़र आया
नाला-ए-गर्म के और दम सर्द भरे क्या जिएँ हम तो मरे
न दिया बोसा-ए-लब खा के क़सम भूल गए
मेरे ही दिल के सताने को ग़म आया सीधा
कूचा में जो उस शोख़-हसीं के न रहेंगे
कोई ले कर ख़बर नहीं आता
खुल गया उन की मसीहाई का आलम शब-ए-वस्ल
करते हैं शौक़-ए-दीद में बातें हवा से हम
करें क्या हवस करें क्या हवस करें क्या हवस करें क्या हवस
का'बा-ओ-बुत-ख़ाना वालों से जुदा बैठे हैं हम
जो मेहंदी का बुटना मला कीजिएगा
ईज़ाएँ उठाए हुए दुख पाए हुए हैं
इश्क़-ए-जान-ए-जहाँ नसीब हुआ
इस दौर में हर इक तह-ए-चर्ख़-ए-कुहन लुटा
हम से किनारा क्यूँ है तिरे मुब्तला हैं हम
गुज़रा अपना पस-ए-मुर्दन ही सही
गुल-बाँग थी गुलों की हमारा तराना था