Love Poetry of Hatim Ali Mehr

Love Poetry of Hatim Ali Mehr
नामहातिम अली मेहर
अंग्रेज़ी नामHatim Ali Mehr

वहदहू-ला-शरीक की है क़सम

तू ने वहदत को कर दिया कसरत

मजमा' में रक़ीबों के खुला था तिरा जूड़ा

किधर का चाँद हुआ 'मेहर' के जो घर आए

करते हैं शौक़-ए-दीद में बातें हवा से हम

काफ़िर-ए-इश्क़ हूँ मुश्ताक़-ए-शहादत भी हूँ

जवाँ रखती है मय देखे अजब तासीर पानी में

हम 'मेहर' मोहब्बत से बहुत तंग हैं अब तो

दीवाना हूँ पर काम में होशियार हूँ अपने

ज़ुल्फ़ अंधेर करने वाली है

ज़िक्र-ए-जानाँ कर जो तुझ से हो सके

वो ज़ार हूँ कि सर पे गुलिस्ताँ उठा लिया

वारिद कोह-ए-बयाबाँ जब में दीवाना हुआ

उस ज़ुल्फ़ के सौदे का ख़लल जाए तो अच्छा

उस का हाल-ए-कमर खुला हमदम

साथ में अग़्यार के मैं भी सफ़-ए-मक़्तल में हूँ

रंग-ए-सोहबत बदलते जाते हैं

क़त्अ हो कर काकुल-ए-शब-गीर आधी रह गई

पुतली की एवज़ हूँ बुत-ए-राना-ए-बनारस

पूछेगा जो वो रश्क-ए-क़मर हाल हमारा

पोशाक-ए-सियह में रुख़-ए-जानाँ नज़र आया

न दिया बोसा-ए-लब खा के क़सम भूल गए

मेरे ही दिल के सताने को ग़म आया सीधा

कोई ले कर ख़बर नहीं आता

खुल गया उन की मसीहाई का आलम शब-ए-वस्ल

करते हैं शौक़-ए-दीद में बातें हवा से हम

करें क्या हवस करें क्या हवस करें क्या हवस करें क्या हवस

का'बा-ओ-बुत-ख़ाना वालों से जुदा बैठे हैं हम

जो मेहंदी का बुटना मला कीजिएगा

ईज़ाएँ उठाए हुए दुख पाए हुए हैं

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