मक़ाम-ए-बर्क़ जिसे आसमाँ भी कहते हैं
इरादा अब है वहाँ अपना घर बनाने का
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मिरा ख़त पढ़ लिया उस ने मगर ये तो बता क़ासिद
हम तो मंज़िल के तलबगार थे लेकिन मंज़िल
क्या कहें क्यूँकर हुआ तूफ़ान में पैदा क़फ़स
सुकून-ए-दिल के लिए और क़रार-ए-जाँ के लिए
निय्यत अगर ख़राब हुई है हुज़ूर की
रौशनी तेज़ करो चाँद सितारो अपनी
याद इतना है मिरे लब पे फ़ुग़ाँ आई थी
आह-ए-ज़िंदाँ में जो की चर्ख़ पे आवाज़ गई
तन को मिट्टी नफ़स को हवा ले गई
आरास्ता बज़्म-ए-ऐश हुई अब रिंद पिएँगे खुल खुल के
परतव-ए-हुस्न हूँ इस वास्ते महदूद हूँ मैं
मेरी हस्ती में मिरी ज़ीस्त में शामिल होना