शैतान करता है कब किसी को गुमराह
था रंग-ए-बहार बे-नवाई कि न था
बंदा हूँ तो इक ख़ुदा बनाऊँ अपना
मा'लूम का नाम है निशाँ है न असर
होती नहीं फ़िक्र से कोई अफ़्ज़ाइश
चौपाए की तरह तू किताबों से न लद
क़ल्लाश है क़ौम तो पढ़ेगी क्यूँकर
जब तक कि सबक़ मिलाप का याद रहा
किस तौर से किस तरह से क्यूँ कर पाया
पुर-शोर उल्फ़त की निदा है अब भी
देखा तो कहीं नज़र न आया हरगिज़
है बार-ए-ख़ुदा कि आलम-आरा तू है