गर्मी का मौसम
अब क़ौम की जो रस्म है सो ऊल-जुलूल
बे-कार न वक़्त को गुज़ारो यारो
गर नेक दिली से कुछ भलाई की है
हक़ है तो कहाँ है फिर मजाल-ए-बातिल
काठ की हंडिया चढ़ी कब बार बार
क़ल्लाश है क़ौम तो पढ़ेगी क्यूँकर
साक़ी ओ शराब ओ जाम ओ पैमाना क्या
अल-हक़ कि नहीं है ग़ैर हरगिज़ मौजूद
अहवाल से कहा किसी ने ऐ नेक-शिआ'र
ये मसअला-ए-दक़ीक़ सुनिए हम से
है बार-ए-ख़ुदा कि आलम-आरा तू है