गर्मी का मौसम
है बार-ए-ख़ुदा कि आलम-आरा तू है
तारीक है रात और दुनिया ज़ख़्ख़ार
इख़्फ़ा के लिए है इस क़दर जोश-ओ-ख़रोश
जब गू-ए-ज़मीं ने उस पे डाला साया
हम आलम-ए-ख़्वाब में हैं या हम हैं ख़्वाब
मकशूफ़ हुआ कि दीद हैरानी है
अब क़ौम की जो रस्म है सो ऊल-जुलूल
या-रब कोई नक़्श-ए-मुद्दआ भी न रहे
कैफ़ियत-ओ-ज़ौक़ और ज़िक्र-ओ-औराद
हर ख़्वाहिश-ओ-अर्ज़-ओ-इल्तिजा से तौबा
था रंग-ए-बहार बे-नवाई कि न था