अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
अपने आईना-ए-तमन्ना में
रात जब भीग के लहराती है
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
एक कम-सिन हसीन लड़की का
उफ़ ये उम्मीद-ओ-बीम का आलम