अब्र में छुप गया है आधा चाँद
हाए ये तेरे हिज्र का आलम
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
चंद लम्हों को तेरे आने से
अपने आईना-ए-तमन्ना में
यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर
उफ़ ये उम्मीद-ओ-बीम का आलम
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम