तितली कोई बे-तरह भटक कर
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
हाए ये तेरे हिज्र का आलम
तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
इक ज़रा रसमसा के सोते में
यूँ नदी में ग़ुरूब के हंगाम
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
चंद लम्हों को तेरे आने से