उस के और अपने दरमियान में अब
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
पास रह कर जुदाई की तुझ से