जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
उस के और अपने दरमियान में अब
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
शर्म दहशत झिझक परेशानी
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
साल-हा-साल और इक लम्हा
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल