चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
सर में तकमील का था इक सौदा
साल-हा-साल और इक लम्हा
शर्म दहशत झिझक परेशानी
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए