पास रह कर जुदाई की तुझ से
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
साल-हा-साल और इक लम्हा
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
ये तेरे ख़त तिरी ख़ुशबू ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
उस के और अपने दरमियान में अब