मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
वो कसी दिन न आ सके पर उसे
पसीने से मिरे अब तो ये रुमाल
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
उस के और अपने दरमियान में अब
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद