ऐ ग़म-ए-दोस्त, हम ने तेरे लिए
तू मिरे साथ अब नहीं है दोस्त
बड़ी शफ़ीक़, बड़ी ग़म-शनास लगती हैं
आसमाँ की बुलंदियों से नदीम
मिरी गली में ये आहट थी किस के क़दमों की
हम फ़क़ीरों की बात क्यूँ पूछो
न तेरे दर्द के तारे ही अब सुलगते हैं
काविश-ए-सुब्ह-ओ-शाम बाक़ी है
आ कि बज़्म-ए-तरब सजा लें हम
मिरी जवानी बहारों में भी उदास रही
तुम्हारी याद के उजड़े हुए, उदास चमन
दिल-जलों को सताने आए हैं