तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
न समझा गया अब्र क्या देख कर
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
सुना है चाह का दावा तुम्हारा