तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
सुना है चाह का दावा तुम्हारा