ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली