ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये