गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
न समझा गया अब्र क्या देख कर
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री