फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन