मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री