इतने भी हम ख़राब न होते रहते
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़