हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
अगर ग़फ़लत से बाज़ आया जफ़ा की
नहीं है ज़ख़्म कोई बख़िये के दर-ख़ुर मिरे तन में
एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़
देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग
वुसअत-ए-सई-ए-करम देख कि सर-ता-सर-ए-ख़ाक
ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या रब
'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़