विदाअ ओ वस्ल में हैं लज़्ज़तें जुदागाना
हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
न पूछ नुस्ख़ा-ए-मरहम जराहत-ए-दिल का
आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ
न बंधे तिश्नगी-ए-ज़ौक़ के मज़मूँ 'ग़ालिब'
महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का
शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
दिल मिरा सोज़-ए-निहाँ से बे-मुहाबा जल गया
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है