पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब में शराब
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
है गै़ब-ए-ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद
ग़ैर को या रब वो क्यूँकर मन-ए-गुस्ताख़ी करे
वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किए
जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की