जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
ये लाश-ए-बे-कफ़न 'असद'-ए-ख़स्ता-जाँ की है
न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़
गुलशन में बंदोबस्त ब-रंग-ए-दिगर है आज
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
सँभलने दे मुझे ऐ ना-उमीदी क्या क़यामत है
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने
बर्शिकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए
हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
आमद-ए-सैलाब-ए-तूफ़ान-ए-सदा-ए-आब है