साए घटते जाते हैं
जंगल कटते जाते हैं
कोई सख़्त वज़ीफ़ा है
जो हम रटते जाते हैं
सूरज के आसार हैं देखो
बादल छटते जाते हैं
आस पास के सारे मंज़र
पीछे हटते जाते हैं
देखो 'मुनीर' बहार में गुलशन
रंग से अटते जाते हैं
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रात की अज़िय्यत
आवाज़ दे के देख लो शायद वो मिल ही जाए
थके लोगों को मजबूरी में चलते देख लेता हूँ
विसाल की ख़्वाहिश
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
ये अजनबी सी मंज़िलें और रफ़्तगाँ की याद
शहर पर्बत बहर-ओ-बर को छोड़ता जाता हूँ मैं
ख़ुदा को अपने हम-ज़ाद का इंतिज़ार
क़बा-ए-ज़र्द पहन कर वो बज़्म में आया
मुझ से बहुत क़रीब है तू फिर भी ऐ 'मुनीर'
रात इक उजड़े मकाँ पर जा के जब आवाज़ दी
कितने यार हैं फिर भी 'मुनीर' इस आबादी में अकेला है