जितनी आँखें थीं सारी मेरी थीं
जितने मंज़र थे सब तुम्हारे थे
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हो गए हम शिकार फूलों के
मान टूटे तो फिर नहीं जुड़ता
मुझे रिफ़अ'तों का ख़ुमार था सो नहीं रहा
क़ुसूर
मैं ख़ुद को सामने तेरे बिठा कर
सितारे
शुऊर-ए-ज़ात के साँचे में ढलना चाहता हूँ
ए'तिराफ़
ख़्वाहिश
मंज़िल है तो इक रस्ता-ए-दुश्वार में गुम है
वक़्त पर इश्क़-ए-ज़ुलेख़ा का असर लगता है