ज़ाहिर न था नहीं सही लेकिन ज़ुहूर था
कुछ क्यूँ न था जहान में कुछ तो ज़रूर था
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वहाँ से ले गई नाकाम बदबख़्तों को ख़ुद-कामी
हाँ जान तो देंगे मगर ऐ मौत अभी दम ले
तो हमें कहता है दीवाना को दीवाने सही
जो सुनते हैं तो मैं मम्नून हूँ उन की इनायत का
मय को मिरे सुरूर से हासिल सुरूर था
दयार-ए-होश की पहले जुनूँ ख़बर लेना
वस्फ़-ए-जमाल-ए-ज़ौक़ है अहल-ए-निगाह का
सुब्ह-ए-पीरी में फिरा शाम-ए-जवानी का गया
ऐ बादा-कश गई है मय-ए-ऐश किस के साथ
ढूँढ तो बुत भी यहीं मिल जाएँगे मर्द-ए-ख़ुदा
खो दिया शोहरत ने अपनी शेर-ख़्वानी का मज़ा
ढूँढती है इज़्तिराब-ए-शौक़ की दुनिया मुझे