वो जो इक तोला कई माशा थी यारी तुम से
रत्ती भर भी न रहा इस में कुछ आसार कहीं
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इस माजरा को जा के कहूँ किस के रू-ब-रू
यार का वस्ल-ए-शबा-शब न हुआ था सो हुआ
ये सारा क़ज़िया तो हम से है इस से तुम को क्या
जो बात मनअ' की है उसे कहिए क्यूँ
ईधर से सेते जाओ और ऊधर से फटता जाए
साने' मिरा वो है कि हो कैसी ही चोब-ए-ख़ुश्क
जितना कि है इफ़रात तिरी कम-निगही का
वो यार हम से ख़फ़ा है तो हो हुआ सो हुआ
फ़स्ल-ए-गुल में हर घड़ी ये अब्र-ओ-बाराँ फिर कहाँ
आगे को बढ़ सके है न पीछे को हट सके
देखा है कहीं गुल ने तुझे जिस की ख़ुशी से
नासेह न बक ज़्यादा मिरा मान ये सुख़न