दिल की उजड़ी हुई हालत पे न जाए कोई
शहर आबाद हुए हैं इसी वीराने से
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आह गाँधी
जी में आता है कि दें पर्दे से पर्दे का जवाब
दिन ढला जाता है शाम आती है घबराता हूँ मैं
हैं यूँ मस्त आँखों में डोरे गुलाबी
हमारे अहल-ए-चमन हम से सरगिराँ तो नहीं
मिरे टूटे हुए दिल की सदा से खेलने वाले
बेबादा भी ग़म से दूर हो जाता हूँ
दूसरों से कब तलक हम प्यास का शिकवा करें
गंगा के किनारे
मस्जिद-ओ-मंदिर कलीसा सब में जाना चाहिए
फ़िरक़ा-परस्ती का चैलन्ज
रुख़्सत अभी ज़ुल्मतों का डेरा कर दूँ