रुख़्सत अभी ज़ुल्मतों का डेरा कर दूँ
नापैद जहाँ से अंधेरा कर दूँ
सूरज के निकलने में तो है देर अभी
पैमाना उठा दो तो सवेरा कर दूँ
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इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ
हर साँस में इक हश्र बपा है वाइ'ज़
होली जवानी की बोली में
पेशानी पे सय्याल नगीना क्यूँ है
सुना है कि उन से मुलाक़ात होगी
उम्र भर की बात बिगड़ी इक ज़रा सी बात में
'प्रेमचंद' एक था एक से इक जहाँ बन गया
हिन्द के मय-ख़ाने से इक साथ उठे दो बादा-ख़्वार
वो आइना हूँ जो कभी कमरे में सजा था
दूसरों से कब तलक हम प्यास का शिकवा करें
फ़िरक़ा-परस्ती का चैलन्ज