एक भी पत्थर न आया राह में
नींद में हम उम्र भर चलते रहे
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ब-ज़ाहिर दश्त की जानिब तो बढ़ता जा रहा है
मिला है अपने होने का निशाँ इक
चूड़ियाँ क्यूँ उतार दीं तुम ने
रात अब अपने इख़्तिताम पे है
यहाँ पर मिरा कुछ भी था ही नहीं
मैं एक पल में अँधेरे से हार जाऊँगा
रौशनी का साथ महँगा पड़ गया है
हसरतों को न ज़ेहन रुस्वा करें
हिफ़ाज़त हर किसी की वो बड़ी ख़ूबी से करता है
जुनूँ को ढाल बनाया तो बच गए वर्ना
मैं हवा के दोश पे रक्खा हुआ