तुम अपने रंग नहाओ मैं अपनी मौज उड़ूँ
वो बात भूल भी जाओ जो आनी-जानी हुई
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पा-ब-ज़ंजीर सही ज़मज़मा-ख़्वाँ हैं हम लोग
जवानी क्या हुई इक रात की कहानी हुई
सच्चा झूट
साहिब-ए-मेहर-ओ-वफ़ा अर्ज़-ओ-समा क्यूँ चुप है
हम ने खुलने न दिया बे-सर-ओ-सामानी को
कमाल-ए-आदमी की इंतिहा है
कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी सो मैं ने जीवन वार दिया
हर आवाज़ ज़मिस्तानी है हर जज़्बा ज़िंदानी है
हवा के दोश पे रक्खे हुए चराग़ हैं हम
तू अपनी आवाज़ में गुम है मैं अपनी आवाज़ में चुप
दरूद पढ़ते हुए उस की दीद को निकलें
कुछ दिन तो बसो मिरी आँखों में