वो मेरे पाँव को छूने झुका था जिस लम्हे
जो माँगता उसे देती अमीर ऐसी थी
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ज़िद
एक मंज़र
इल्ज़ाम था दिए पे न तक़्सीर रात की
कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिए
ज़ुल्म सहना भी तो ज़ालिम की हिमायत ठहरा
ख़ुद से मिलने की फ़ुर्सत किसे थी
रुख़्सत करने के आदाब निभाने ही थे
वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी
रफ़ाक़तों का मिरी उस को ध्यान कितना था
अब इतनी सादगी लाएँ कहाँ से
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया