ये मो'जिज़ा भी मोहब्बत कभी दिखाए मुझे
कि संग तुझ पे गिरे और ज़ख़्म आए मुझे
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मैं जब 'क़तील' अपना सब कुछ लुटा चुका हूँ
बना हूँ मैं आज तेरा मेहमाँ कोई अदू को ख़बर न कर दे
दूर तक छाए थे बादल और कहीं साया न था
गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं
निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न मय-ख़ाना
कौन इस देस में देगा हमें इंसाफ़ की भीक
उस अदा से भी हूँ मैं आश्ना तुझे इतना जिस पे ग़ुरूर है
कोई मक़ाम-ए-सुकूँ रास्ते में आया नहीं
इक ऐसा वक़्त भी आता है चाँदनी शब में
सत्तरहवाँ सिंगार
क्या इश्क़ था जो बाइस-ए-रुस्वाई बन गया
माना जीवन में औरत इक बार मोहब्बत करती है