आप ने अच्छा किया ततहीर-ए-ख़्वाहिश ही न की
वर्ना ज़मज़म चश्मा-ए-नापाक होता ग़ालिबन
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ख़ुद को मुम्ताज़ बनाने की दिली-ख़्वाहिश में
मुतालेआ की हवस है किताब दे जाओ
कोई नश्शा न कोई ख़्वाब ख़रीद
बराए-नाम ही सही ब-एहतियात कीजिए
सब्ज़ा-ज़ारों की शराफ़त से न खेलो क़तअन
वक़्त के इंतिज़ार में वो है
हम न होते काख़-ए-मुश्त-ए-ख़ाक होता ग़ालिबन
सुनो तो आरिज़ा-ए-इख़तिलाज रहने दो
हर एक शाख़ थी लर्ज़ां फ़ज़ा में चीख़-ओ-पुकार
हादसों के ख़ौफ़ से एहसास की हद में न था
किसी को साया किसी को गुल-ओ-समर देगा