तुम्हें ऐ काश कोई राज़ ये समझा गया होता
अगर सुनते तो कहने का सलीक़ा आ गया होता
Faiz Ahmad Faiz
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रखो तुम बंद बे-शक अपनी घड़ियाँ
रखना हमेशा याद ये मेरा कहा हुआ
रहे ख़याल हिक़ारत से देखने वालो
ख़ुशी हम से किनारा कर रही है
आज बार-ए-गोश है मेरी सदा उस को मगर
भला कह दिया या बुरा कह दिया
हर इक की है पसंद अपनी हर इक का है मिज़ाज अपना
मेरे ख़त का जवाब आया था
हम ने दुनिया से सुलूक ऐसा किया है 'राना'
तुम्हारी राह में आँखें बिछाए बैठा हूँ
सब की आँखें तो खुली हैं देखता कोई नहीं
हर शख़्स यहाँ साहिब-ए-इदराक नहीं है