घर में जी लगता नहीं और शहर के
रास्ते लगते नहीं अपने अज़ीज़
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जब तक दौर-ए-जाम चलेगा
तुझ से मिलने को बे-क़रार था दिल
हाथ में ख़ंजर आ सकता है
शेर-ओ-सुख़न का शहर नहीं ये शहर-ए-इज़्ज़त-ए-दारां है
इश्क़ में भी सियासतें निकलीं
रात क्या सोच रहा था मैं भी
कुछ न कुछ सोचते रहा कीजे
दिल धड़कता है सर-ए-राह-ए-ख़याल
जब भी तेरी यादों का सिलसिला सा चलता है
सिर्फ़ माने थी हया बंद-ए-क़बा खुलने तलक
तेरे आने का इंतिज़ार रहा
सामने जी सँभाल कर रखना