तिरे नज़दीक आ कर सोचता हूँ
मैं ज़िंदा था कि अब ज़िंदा हुआ हूँ
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उठ रहा है धुआँ मिरे घर में
जिन आँखों से मुझे तुम देखते हो
तीर जैसे कमान के आगे
शहर में जैसे कोई आसेब है
रात है या हवा मकानों में
और कुछ यूँ हुआ कि बच्चों ने
तेरे आने का इंतिज़ार रहा
कहाँ जाते हैं आगे शहर-ए-जाँ से
यूँ गँवाता है कोई जान-ए-अज़ीज़
सहरा-ए-बे-ख़याल में जल-थल कहाँ के हैं
शेर-ओ-सुख़न का शहर नहीं ये शहर-ए-इज़्ज़त-ए-दारां है
कोई ता'मीर की सूरत निकालो