गिर रहे हैं बदन पे शाख़ से फूल
छू रही है सबा लब-ओ-रुख़्सार
साया-ए-गुल में एक दोशीज़ा
देर से तक रही है रक़्स-ए-बहार
Mir Taqi Mir
Gulzar
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इक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है
अभी से लुत्फ़-ओ-मुरव्वत का एहतिमाम न कर
रुख़ उन का कहीं और नज़र और तरफ़ है
और मोड़ ने कहा
दिन गुज़रता है उन की यादों में
दूर घाटी से सर उठा के शफ़क़
फिर लाई है बरसात तिरी याद का मौसम
मुझ को तो आप मिरे ख़्वाब में मिल जाएँगे
लोग करते हैं ख़्वाब की बातें
वक़्त बढ़ता रहा मौसम मौसम
आँखों के गुलाबों को नज़्मों में छुपा लूँगा