रुख़ उन का कहीं और नज़र और तरफ़ है
किस सम्त से आती है क़ज़ा देख रहा हूँ
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ज़िंदगी तू ने कहानी दे दी
ये कैसी सियासत है मिरे मुल्क पे हावी
अब उठाओ नक़ाब आँखों से
आँखों के गुलाबों को नज़्मों में छुपा लूँगा
इस तरह दिल में शब-ए-तन्हाई
हाल का लम्हा लम्हा छलनी है
तेरी याद मेरी भूल
मौसमों का जवाब दे दीजे
मुद्दतों बाद उठाए थे पुराने काग़ज़
हम जो काफ़िर हैं सब की नज़रों में
सेहन-ए-गुलशन में ढूँडती है कभी
ज़ुल्फ़ की शाम सुब्ह चेहरे की