ज़ुल्फ़ की शाम सुब्ह चेहरे की
यही मौसम जनाब दे दीजे
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गिर रहे हैं बदन पे शाख़ से फूल
हाल का लम्हा लम्हा छलनी है
फ़नकार
आँखों के गुलाबों को नज़्मों में छुपा लूँगा
तन्हाई
हम जो काफ़िर हैं सब की नज़रों में
अब उठाओ नक़ाब आँखों से
जब भी खिलता है सर-ए-शाख़ कोई ताज़ा गुलाब
आज पनघट पर इस तरह थी भीड़
अभी से लुत्फ़-ओ-मुरव्वत का एहतिमाम न कर
सेहन-ए-गुलशन में ढूँडती है कभी