दिल जलाओ या दिए आँखों के दरवाज़े पर
वक़्त से पहले तो आते नहीं आने वाले
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यूँ तो इक उम्र साथ साथ हुई
वक़्त के साथ 'सदा' बदले तअल्लुक़ कितने
अपनी उर्दू तो मोहब्बत की ज़बाँ थी प्यारे
वो तो ख़ुश्बू है हर इक सम्त बिखरना है उसे
क्यूँ ये हसरत थी दिल लगाने की
हमें न रास ज़माने की महफ़िलें आई
दिल के कहने पर चल निकला
इक न इक रोज़ रिफ़ाक़त में बदल जाएगी
रस्म-ए-दुनिया तो किसी तौर निभाते जाओ
नींद आई ही नहीं हम को न पूछो कब से
अब कहाँ दोस्त मिलें साथ निभाने वाले