हाल-ए-दिल ना-गुफ़्तनी है हम जो कहते भी तो क्या
फिर भी ग़म ये है कि उस ने हम से पूछा ही नहीं
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न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
सच तो कह दूँ मगर इस दौर के इंसानों को
मोहल्ले वाले मेरे कार-ए-बे-मसरफ़ पे हँसते हैं
मैं सर छुपाऊँ कहाँ साया-ए-नज़र के बग़ैर
मैं उस को भूल गया था वो याद सा आया
साथ उस के रह सके न बग़ैर उस के रह सके
दिल के अंदर दर्द आँखों में नमी बन जाइए
रोज़ काग़ज़ पे बनाता हूँ मैं क़दमों के नुक़ूश
मेरा शोर-ए-ग़र्क़ाबी ख़त्म हो गया आख़िर
इक पतिंगे ने ये अपने रक़्स-ए-आख़िर में कहा
आँखें
बुरा लगा मिरे साक़ी को ज़िक्र-ए-तिश्ना-लबी