मैं आग देखता था आग से जुदा कर के
बला का रंग था रंगीनी-ए-क़बा से उधर
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मैं जो गुज़रा सलाम करने लगा
बुझी रूह की प्यास लेकिन सख़ी
सफ़ीना रखता हूँ दरकार इक समुंदर है
फ़ुरात-ए-फ़ासिला से दजला-ए-दुआ से उधर
नई नई सी आग है या फिर कौन है वो
नज़्म
जाने उस ने क्या देखा शहर के मनारे में
यक-ब-यक मंज़र-ए-हस्ती का नया हो जाना
दिन और झाग
ले आएगा इक रोज़ गुल ओ बर्ग भी 'सरवत'
बहुत मुसिर थे ख़ुदायान-ए-साबित-ओ-सय्यार
पानी का हाथ