है जिस की सरिश्त में सफ़ाहत का मैल
ले जाए बहा के गरचे तालीम का सैल
और खाए पड़ा गरचे बरसों ग़ोते
निकलेगा तो होगा फिर वही बैल का बैल
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तालीम की मीज़ान में हैं तुलते जाते
इस से कि कहीं के शाह हो सकते हम
'शहबाज़' में ऐब ही नहीं कुल
दौलत के भरोसे पे न होना ग़ाफ़िल
शब-ए-फ़िराक़ का छाया हुआ है रोब ऐसा
तन ऐश का घर है इस का अस्बाब है रूह
अंजाम ख़ुशी का दुनिया में सच कहते हो ग़म होता है
दौलत नहीं जब तक ये ज़ुबूँ रहते हैं
बूँद अश्कों से अगर लुत्फ़-ए-रवानी माँगे
हम रो रो अश्क बहाते हैं वो तूफ़ाँ बैठे उठाते हैं
मर्ग़ूब हो गर तुम को उमूमी शाबाश